POETRY in HINDI - विविध अभिव्यक्ति। लेख :- Date :-03/04/2022 , रांची,झारखंड। सरहुल पर्व / Sarhul parv / प्रकृति पर्व / Prakriti parv. जानें...
POETRY in HINDI - विविध अभिव्यक्ति।
लेख :- Date :-03/04/2022 , रांची,झारखंड।
सरहुल पर्व / Sarhul parv / प्रकृति पर्व / Prakriti parv.
जानें:-
सरहुल पर्व का परिचय :-
सरहुल पर्व को प्रकृति पर्व भी कहा जाता है। यह आदिवासियों द्वारा मनाया जानेवाला त्यौहार है।
सरहुल का अर्थ :-
"सरहुल" शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - "सर" तथा "हुल"।
''सर'' का अर्थ है - "सरई का फूल" या "सखुआ का फूल" या "साल वृक्ष का फूल"।
"हुल" का अर्थ है - "क्रान्ति" या "बदलाव"।
अर्थात् प्रकृति में पतझड़ के बाद वसंत ऋतु का आगमन होता है तो एक क्रांति या बदलाव चहुं दिशा दृश्यमान हो जाती है।इस बदलाव को ही सखुआ के फूलों के साथ सरहुल के नाम से इस प्रकृति पर्व को मनाया जाता है।
साल (Sal tree)/ सखुआ/सरई का वैज्ञानिक(बोटेनिकल) नाम है - Shorea robusta.
सरहुल का त्यौहार कब मनाया जाता है?
यह हिंदी कैलेंडर के अनुसार विक्रम संवत के तृतीया को अर्थात् हिंदू नववर्ष के तीसरे दिन सरहुल का पर्व मनाया जाता है।
पतझड़ में जब पेड़ - पौधे अपने पत्तियों को गिराने के बाद वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही वृक्ष नई पत्तियों और फूलों के साथ सौंदर्य से परिपूर्ण हो जाती हैं,तब सरहुल का त्यौहार मनाया जाता है।
सरहुल कहां - कहां मनाया जाता है?
यह प्रकृति पर्व आदिवासियों का मुख्य त्योहार है। झारखंड में यह पर्व आदिवासियों द्वारा बड़े ही प्रमुखता से मनाया जाता है।
इसके साथ ही इस पर्व को आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसमें प्रमुख हैं -मध्य प्रदेश, ओडिशा,पश्चिम बंगाल आदि।इसके साथ ही नेपाल,भूटान में भी आदिवासी जनजातियों के द्वारा यह पर्व मनाया जाता है।
सरहुल पर्व मनाने के विधि - विधान :-
सरहुल मुख्यत: फूलों का त्यौहार है। इस पर्व में सखुआ के पेड़ के फूलों का विशेष महत्व होता है।
सरहुल पर्व मुख्यत: चार दिन तक मनाया जाता है।इसकी शुरुआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया से होती है।
पहला दिन - सबसे पहले दिन में मछली का अभिषेक किया जाता है और इस जल को पूरे घर में छिड़काव किया जाता है।साथ ही केकड़ा पकड़ने का भी ये दिन होता है।
दूसरा दिन - दूसरे दिन पाहन ( गांव का पुजारी) उपवास रखते हुए प्रत्येक घर के छत एवं दरवाजे पर सरई फूल खोंसता है अर्थात लगाता है।
तीसरा दिन - सरहुल के तीसरे दिन , पाहन के द्वारा उपवास रखकर सरना स्थल जो पूजा स्थल होती है,पर सरई के वृक्ष तथा फूलों की पूजा की जाती है।साथ ही मुर्गी की बलि दी जाती है।
चावल तथा बलि दी गई मुर्गी के मांस को मिलाकर " सुंडी" बनाई जाती है,जिसे प्रसाद के रूप में पूरे गांव में सभी को बांट दिया जाता है।
चौथा दिन - चौथा दिन सरहुल पर्व का आखिरी दिन होता है।इस दिन "गिड़िवा" नामक स्थल पर पूजा किए गए सरहुल के फूल या टहनी का विसर्जन किया जाता है।
सरहुल में एक परंपरा के अनुसार, पाहन मिट्टी के तीन बर्तन में ताजा पानी भरता है तथा उत्तम वर्षा के लिए प्रकृति से प्रार्थना करते हुए पूरे दिन के लिए छोड़ देता है और उसका दूसरे दिन अवलोकन करता है । यदि बर्तन में रखे जल का स्तर कम होता है तो अकाल की भविष्यवाणी करता है । वहीं, यदि जल का स्तर सामान्य रहता है तो उसे उत्तम वर्षा का संकेत माना जाता है।
केकड़ा का महत्व :-
सरहुल के त्योहार में केकड़ा का एक विशेष महत्व होता है।
गांव के पुजारी केकड़े को पकड़ते हैं केकड़े को पूजा घर में अरवा धागा से बांध कर टांग देते हैं।
आदिवासी समाज इसे सृष्टि की उत्पत्ति से जोड़कर देखता है।ऐसा मानना है कि मछली और केकड़े ने ही समुद्र के नीचे की मिट्टी लाकर धरती की सतह का निर्माण किया।
जब फसल की बुआई होती है तो इसका चूर्ण बनाकर बीजों के साथ बोया जाता है।
मान्यता है कि जिस प्रकार केकड़े के असंख्य बच्चे होते हैं उसी तरह फसल भी बहुतायत मात्रा में होगी।
सरहुल पर्व में महिलाओं द्वारा पहने जाने वाली लाल पाड़ वाली साड़ी का महत्व :-
सरहुल पर्व के दिन लड़कियां और महिलाएं सफेद और लाल पाड़ वाली साड़ी पहनती हैं।साथ ही सरना झंडा का रंग भी लाल और सफेद रंग के पट्टी से युक्त होता है।
साड़ी में लाल और सफेद रंग का विशेष महत्व होता है।जहां लाल रंग संघर्ष को दर्शाता है वहीं सफेद रंग शालीनता और पवित्रता का सूचक है।
सरना झंडे का लाल रंग बुरुबोंगा(पहाड़ देवता) तथा सफेद रंग सिंगबोंगा( सर्वोच्च देवता)का प्रतीक माना जाता है।
सरहुल पर्व से संबंधित प्राचीन कथा :-
सरहुल पर्व से जुड़ी कई कहानियों में से एक कहानी है महाभारत से जुड़ी एक कथा।कहा जाता है,जब महाभारत का युद्ध चल रहा था,तब कौरवों की प्रजा होने के नाते आदिवासियों ने कौरवों का साथ दिया था और कई मुंडा सरदार पांडव के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए थे ।तब आदिवासियों ने उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शवों को साल के पत्तों तथा टहनियों से
ढंक दिया था।
बाद में देखा गया कि जो शव साल के टहनियों तथा पत्तों से ढके हुए थे ,वे सुरक्षित थे अर्थात सड़ने से बच गए थे। वहीं,अन्य शव सड़ चुके थे।
इसके बाद माना जाता है कि आदिवासियों या जनजातियों द्वारा साल के वृक्ष के प्रति श्रद्धा और विश्वास बढ़ गया होगा और साल के वृक्ष की आराधना करते हुए इसे सरहुल के पर्व के रूप में मनाया जाता है।
झारखंड में प्रकृति पर्व:-
" सेनेगे सुसून काजिगे दुरंग" - इसका अर्थ है जहां चलना नृत्य है वहीं बोलना गीत - संगीत।यह झारखंड की एक कहावत है।यही झारखंड का जीवन है।
पूरे दिन मेहनत करने के बाद पूरा गांव अखरा/अखड़ा में एक साथ नृत्य करते तथा गीत गाते हैं। ऐसे में सरहुल को खुशियों का सौगात माना जाता है।जहां प्रकृति खुद को कई फूलों से संवार लेती है,जंगल सौंदर्य से परिपूर्ण हो जाते हैं,और घर फसलों से।माना जाता है कि समृद्ध प्रकृति ही हम मानव की समृद्धि का प्रतीक है।
झारखंड में कई जनजातियां हैं।
- संथाली , हो और मुंडारी में सरहुल को " बा पोरोब" या "बाहा पोरोब" कहा जाता है।
- कुडुख(उरांव) में "खद्दी" या "खेखेल बेंजा" कहा जाता है।
- खड़िया में "जांकोर"।
- वहीं, खोरठा,नागपुरी, पंचपरगनिया,कुरमाली में "सरहुल" कहा जाता है।
:-तारा कुमारी
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