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जानें :- होलिका - दहन क्यों मनाया जाता है?
होलिका - दहन (Holika Dahan) क्यों मनाया जाता है? होलिका - दहन की क्या महत्ता है?
होलिका - दहन
"होलिका - दहन" , प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह "रंगों के त्योहार - होली" के ठीक एक दिन पहले मनाया जाता है।
होलिका - दहन क्यों मनाया जाता है?
होलिका - दहन से जुड़ी एक पौराणिक कथा काफ़ी प्रचलित है - प्रह्लाद और होलिका की कहानी।
विष्णु पुराण के अनुसार, दैत्यों के एक राजा थे हिरण्यकश्यप। वह बहुत ही तपस्वी था।उसने अपनी जीवन में घोर तपस्या करके देवताओं से वरदान प्राप्त किया ।दैत्यराज हिरण्यकश्यप को वरदान मिला कि संसार में कोई भी मानव या पशु उसका वध नहीं कर सकता ,न उसे जमीन में मारा जा सकता था न आकाश में, न घर में कोई मार सकता था न बाहर में, न दिन के समय न रात्रि काल में और न ही उसे कोई अस्त्र से मारा जा सकता था न ही शस्त्र से।
यह वरदान दैत्यराज के लिए किसी अमरत्व के वरदान से कम नहीं था।
इसके कारण हिरण्यकश्यप को अहंकार हो गया और वह स्वयं को अजर अमर समझने लगा तथा इस अहंकार में डूब कर ईश्वर का अपमान करते हुए स्वयं को ही भगवान समझने लगा।उसने अपनी प्रजा के समक्ष स्वयं को भगवान घोषित करते हुए स्वयं की आराधना करने के लिए प्रजा को मजबूर करने लगा।
दिन ब दिन उसका अहंकार बढ़ता जा रहा था और प्रजा पर अत्याचार भी।
कुछ समय पश्चात , हिरण्यकश्यप को एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ - प्रह्लाद।
प्रह्लाद बचपन से ही विष्णु भक्त थे।ये बात उसके पिता हिरण्यकश्यप को बिलकुल भी पसंद न थी।प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप ने ईश्वर वंदना करने से मना करते हुए स्वयं की आराधना व वंदना करने के लिए कहा।किंतु ,प्रह्लाद अपनी भक्ति पर अडिग रहा तथा विष्णु जी को ही सृष्टि का रचियिता मानने हुए उनकी ही वंदना करने की बात कही।
यह सुनकर हिरण्यकश्यप के क्रोध का ठिकाना न रहा।उसने प्रह्लाद का वध करने का निश्चय किया और अपने सैनिकों को प्रह्लाद का वध करने का आदेश दे दिया।
सैनिकों ने विष्णु भक्त प्रह्लाद को कभी समुद्र में डुबोकर,तो कभी ऊंचे पहाड़ से नीचे गिराकर तो कभी अन्य कई तरीकों से मारने का बहुत यत्न किया ,लेकिन प्रह्लाद हर बार जीवित बच गया।
यह देखकर हिरण्यकश्यप की बहन ,होलिका ने प्रह्लाद का वध करने का बीड़ा उठाया। होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे भस्म नहीं कर सकती।इस बात का लाभ उठाते हुए होलिका ने एक चिता तैयार कराया ताकि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठाकर उस पर बैठे और उस चिता की आग में प्रह्लाद तो भस्म हो जाए किंतु वह स्वयं जीवित बच जाए।इस प्रकार प्रह्लाद के वध करने की योजना तैयार हुई।
लेकिन दैत्यराज हिरण्यकश्यप के साथ ही होलिका के भी कुकृत्यों का घड़ा भर चुका था और होलिका का वरदान क्षीण हो चुका था।
जैसे ही होलिका चिता में बैठी और प्रह्लाद को गोद में बिठाते ही चिता में आग प्रज्वलित की गई, होलिका का वरदान क्षीण होने के कारण वह जल कर मृत्यु को प्राप्त हुई।वहीं भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु जी के कृपा से जीवित बच गए।
यह देखकर उसके पिता हिरण्यकश्यप क्रोधित हो उठे और स्वयं अपने पुत्र के प्राण हरने के लिए उठ खड़े हुए।
तभी वहां स्थित एक खंभे से भगवान विष्णु जी ने नरसिंह अवतार धारण करते हुए प्रकट हुए और भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु दैत्यराज हिरण्यकश्यप को पुत्र का वध करने से रोक लेते हैं। नरसिंह अवतार में भगवान विष्णु का धड़ सिंह का था और शरीर नर (पुरुष) का।नरसिंह अवतार में विष्णु जी ने अपने पंजों से हिरण्यकश्यप को पकड़कर अपनी जांघों पर रखा और देखते ही देखते उन्होंने उसका अंत कर दिया।
इस प्रकार, हिरण्यकश्यप को मिले हुए वरदान की रक्षा करते हुए प्रह्लाद की रक्षा हुई साथ ही एक अत्याचारी तथा अहंकारी राक्षस राजा का भी अंत हो गया।
कहा जाता है, तब से लोगों ने इस दिन को होलिका - दहन के रूप में मनाना शुरू किया।
होलिका - दहन की महत्ता क्या है?
होलिका - दहन एक त्योहार के रूप में अपने साथ एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर हर वर्ष हमारे बीच आता है। जैसा कि पौराणिक कथा के अनुसार,यह बुराई पर अच्छाई की जीत का सूचक है।यह हमें सारे वैर भाव,ईर्ष्या, नकारात्मकता आदि को अग्नि में जलाकर राख करने तथा हृदयों में प्रेम , सौहार्द,अच्छाई,तथा सकारात्मकता को जगह देने की प्रेरणा देती है।
और यही नहीं,ये पर्व सिर्फ हमारे निजी जीवन ही नहीं अपितु हमारे समाज, देश , हमारे आस पास व्याप्त सभी बुराइयों को खत्म करने और अच्छाइयों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है।
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