विविध - अभिव्यक्ति - (Poetry in hindi) (समाज और मानसिकता) स्त्री - पुरुष :- एक बदलता स्वरूप। नर और नारी जीवन के उत्पति या सृजन के सूत्रधा...
विविध - अभिव्यक्ति - (Poetry in hindi)
(समाज और मानसिकता)
नर और नारी जीवन के उत्पति या सृजन के सूत्रधार हैं और एक दूसरे के पूरक भी।
पुरुष - प्रधान समाज में आज के दौर में पुरुष, महिलाओं को कदम से कदम मिलाकर चलने में एक महत्वपूर्ण और सहयोगी भूमिका निभा रहे हैं,जो प्रशंसनीय है।
पुरुष, महिलाओं को जीवन के कई क्षेत्रों में समान दर्जा देकर महिलाओं को सम्मान तो दे ही रहे हैं साथ ही उनकी बराबरी को भी स्वीकार कर रहे हैं । चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यूं ना हो।
लेकिन वहीं, पुरुषों का एक समूह इस कारवां में आज भी कहीं अटका हुआ है।
जो मौखिक रूप से नारी को समान दर्जा देने की बात तो करता है लेकिन हृदय से स्वीकार नहीं पाता और नारी की सफलता तथा ऊंचाई उनके अहंकार को चोटिल करता है। और मन ही मन स्त्री से ईर्ष्या करता है।
वैसे तो किसी से ईर्ष्या होना या करना, मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण है ,एक भावना है। लेकिन किसी का 'स्त्री होकर' उपलब्धियों को हासिल करना अगर ये भाव ईर्ष्या का कारण बनती है तो ये संकुचित सोच और कुंठित भावना को इंगित करता है।
बदलते समाज में ऐसे पुरुष चोटिल होकर भी मुखर रूप से जब इसका विरोध नहीं कर पाते हैं और न ही रोक पाते हैं, तो तरह - तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
लोक - लाज और दिखावे के प्रगतिशील सोच का दिखावा करने वाले ये पुरुष शारीरिक चोट तो नहीं पहुंचाते लेकिन मानसिक और भावनात्मक रूप से चोट जरूर देते हैं।
कभी शुभचिंतक बनकर, तो कभी नारी को घर परिवार की भलाई दिखाते हुए उन्हें हतोत्साहित करते हैं। तो कभी नारी को संभावित परेशानियों से डराते हुए घर के चारदीवारी या पिंजरे में कैद रखने की कोशिश करते हैं।
अजीब विडंबना तो ये है कि यही पुरुष जब परिवार के आर्थिक मामलों में सहायता और समानता के नाम पर नारी को समाज में सामने तो ले आते हैं , लेकिन जब यही अबला या सबला कहलाने वाली नारी आगे बढ़ने लगती है और ऊंचाईयों को छूने लगती है तो पुरुष इससे विचलित हो जाते हैं। खासकर तब तो और ज्यादा, यदि स्त्री और पुरुष दोनों एक ही क्षेत्र से संबंधित हों।
बरसों से स्त्री को अपने पीछे चलते देखने की आदत को वो बदल नहीं पाते।
पुरुष जब स्त्री को आगे बढ़ने से रोक नहीं पाते तो भावनात्मक रूप से प्रहार कर स्त्री को कमजोर रखने की कोशिश करते हैं। और अपने झूठे और भारी भरकम अहम को सांस लेने में मदद करते हैं।
ये समाज की ढकी छुपी दोहरी चेहरे हैं जो खुलकर या साफ साफ कभी दिखते नहीं ,लेकिन हमारे बीच हर जगह किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं।
अगर स्त्री इसका विरोध करना चाहे तो ये पुरुष कभी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते।उनके अहम को ये ठेस पहुंचाती दिखती है।या कहें ,अभी भी उनमें इस बदलाव को स्वीकारने का साहस नहीं है।
आशा है, कुछ और वक्त की आवश्यकता है जहां पुरुष इस बदलाव को सहजता से खुदके लिए तथा स्त्री के लिए भी खुशी - खुशी बाहें फैलाकर हृदय से स्वागत करने की हिम्मत जुटा सकें।
--- :- तारा कुमारी ।
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