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आज़ादी,तुम खुद को आवाज़ दो Aazadi,tum khudko aawaz do - A hindi poem

 Poetry in hindi (कविताओं का संकलन) Guest post :- आज़ादी,तुम खुदको आवाज़ दो(हिंदी कविता)/ Aazadi,tum khudko aawaz do. (Hindi poem) कोलकाता(व...

 Poetry in hindi (कविताओं का संकलन)

Guest post :-

आज़ादी,तुम खुदको आवाज़ दो(हिंदी कविता)/ Aazadi,tum khudko aawaz do. (Hindi poem)

आजादी तुम खुद को आवाज दो

कोलकाता(वेस्ट बंगाल) से अग्निशिखा प्रधान की कविता।

आज़ादी,तुम खुद को आवाज़ दो।


 हिमालय की ऊंची शिखर पर
 शान से लहराता तिरंगा हूं मैं ,
 मरुस्थल की सूखी रेत पर
 एक शीतल तालाब हूं मैं,
 एकड़ में मापने वाली हरियाली खेतो में
 अमन का पैगाम हूं मैं,
 75 साल हो गये मेरी आजादी को मगर,
 आज भी गुलाम हिंदुस्तान हूं मैं!

 गुलाम हूं यहां की सोच का,
 आओ, सामना कराऊं तुम्हें सच का-
 "आजाद हैं" के नारे अब किस काम का?
 आजादी तो यहां है सिर्फ नाम का!

 मेरे यहाँ तो मर्द
 रोया नहीं करते,
 औरतों की चद्दर वो
 पिरोया नहीं करते,
 मरहम की तलाश में मगर,
 गुम हो जाने से है डरते !
 इंसानियत भूलने वाला मर्द जवान बन गया कबसे?
 - पहचान उसकी सिर्फ 'मर्दानी' बन गया जबसे |
 भेदभाव के तराज़ू में खुदको तोलके,
 बस वो आगे ही जाते हैं बढ़ते!

 मेरे यहाँ बेटियां
 अपने नहीं लगते,
 उनके लिए खुशियां भी
 सपने से हैं लगते ,
 कोख में ही कुछ का
 कत्ल किया जाता है,
 नंगे सड़क पर बेरहमी से
 इज्जत निचोड़ा जाता है,
 थी वो सिर्फ 16 -17 ही साल की
 जब मांग में उसकी सिंदूर थी लिपटी ,
 हाथों में चूड़ियां उसने जिस दिन थी पहनी,
 समझौते की बेड़ियों में उसे गुलामी थी सहनी 

 सियासत के ज़र्रे ज़र्रे ने
 नौ जवानो को है लूटा,
 ईमान की मूरत बनाने वाला
 वो ईमानदार ठहरा झूठा!

 मजहब के नाम पे मैं
 यहां दंगा नहीं चाहती हूं,
 आज रंगो की इस होली पे मैं
 दरगाह में हरा चादर ओढ़ना चाहती हूँ !

 सच बोलने के खौफ से
 मैं डट के लड़ना चाहती हूं,
 बेखौफ मेरी जुबानी से
 मैं आजादी को आवाज लगाती हूं!

 मेरी आवाज तुम्हारे कानों में ना गुंजे
 बहरे तो नहीं हो तुम!
 मेरे लिए बुलंद आवाज़ ना उठे
 गूंगे भी तो नहीं हो तुम!
 किसी पीड़ित को देख कर ज़ालिमो को कोई ज़ुल्म ना सूझे
 अंधे तो बिलकुल भी नहीं तुम!
 भीड़ में समा के चुप्पी को जो पूजे ,
 कुछ ऐसे आज़ाद गुलाम हो तुम!

 खुद के जज्बातों से ही
 तुम अक्सर रहते हो लड़ते ,
 और कहते हो देश के लिए
 मर मिट जाने को तुम नहीं डरते!?
 खुद ही खुद से पूछ नहीं पाते :
 अखिर जिंदगी में तुम क्या हो चाहते ?
 डर के लकीर से तुमने दायरा है खींचा,
 सच कहो, आजादी को क्या आज तक तुमने सींचा ?
 अब कभी जबर्दस्ती की गुलामी नहीं चाहती हूं,
 दुबारा कभी "ना" ना बोल पाने की ग्लानि नहीं चाहती हूं|

 दाहिने हाथ पे मैं अपने घड़ी बांधना चाहती हूँ,
 वक्त को मेरे अब मैं खुद साधना चाहती हूं |

 सोच की बेड़िया तोड़ के
 सच की सीढ़ियां चढ़ना चाहती हूं
 गुलामी की सतह को चीर कर 
 अपने अंदर में आज़ादी ढूँढना चाहती हूँ!
 क्या तुम भी वो पिंजरा तोड़कर
 खुलके उड़ना चाहते हो?

 'आज़ादी' को 'आवाज' चाहिए,
 'आजा़दी' को 'आवाज़' दो ||
 'आवाज़' को अपनी 'आज़ादी' दो,
 'आज़ादी', अब तुम भी खुदको 'आवाज़' दो!

(स्वरचित)
:- अग्निशिखा प्रधान
कोलकाता,वेस्ट बंगाल।

 कैसी लगी आपको यह गीत/कविता? जरूर बताएं। यदि पसंद आए या कोई सुझाव हो तो कमेंट में लिखे। आपके सुझाव का हार्दिक स्वागत है।

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. I am proud of you annu your words are like thunder lightning and this is a direct way of showing the society a mirror.

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