क्या जिक्र करूं मैं ( हिंदी कविता) / kya zikar karun main (Hindi poem) क्या जिक्र करूं मैं क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का जिस मुहब्बत...
क्या जिक्र करूं मैं ( हिंदी कविता) / kya zikar karun main (Hindi poem)
क्या जिक्र करूं मैं
क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का
जिस मुहब्बत को मुझसे मुहब्बत ही नहीं!
दिन - रात कसक में घुलता है मन मेरा
तमाम दुनियादारी की फिक्र है उसे,
जरूरी और जरूरत की लंबी फेहरिस्त में
बस एक मैं ही हूं, जो जरूरी नहीं।
क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का
जिस मुहब्बत को मुझसे मुहब्बत ही नहीं।।
ख्वाब तो देखे बहुत-सी मुहब्बत को लेकर
पर किए ख्वाहिशों से ज्यादा समझौता मैंने।
इस मुहब्बत के सौदेबाजी में भी,
दो पल राहत के मेरे नसीब में नहीं।
क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का
जिस मुहब्बत को मुझसे मुहब्बत ही नहीं।।
खुशी और गम सब राब्ता है मेरे उनसे,
उनकी हर गली का रास्ता है जुदा मुझसे,
उम्मीदों की नाव खेती, राह ताकती उनकी
लेकिन.. सबसे वास्ता है उनका,बस एक मुझसे ही नहीं।
क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का
जिस मुहब्बत को मुझसे मुहब्बत ही नहीं।।
नहीं कर सकती बयां शब्दों से
क्या दिल पर मेरे गुजरती है,
जब उनकी बेरुखी शूल की तरह चुभती है,
आंखों से रिसते हैं वो जख्मों के लावा हैं,आंसू नहीं।
पिघला दे जो पत्थर को भी स्पर्श कर के
लेकिन हुई कोई हलचल उनके दिल में नहीं ।
क्या जिक्र करूं मैं अपनी मुहब्बत का
जिस मुहब्बत को मुझसे मुहब्बत ही नहीं।।
(स्वरचित)
:- तारा कुमारी
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