किताब की व्यथा दूर बैठी एक स्त्री सिसकती देख, कदम बढ़ गए उस ओर कंधे पर रखकर हाथ पूछा मैंने - कौन है तू? क्यूं रो...
किताब की व्यथा
दूर बैठी एक स्त्री सिसकती
देख, कदम बढ़ गए उस ओर
कंधे पर रखकर हाथ पूछा मैंने -
कौन है तू? क्यूं रोती है तू वीराने में?
सुबकते हुए कहा स्त्री ने -
किताब हूँ मैं...
त्याग दिया है मुझे जग ने
बचपन की सुखद सहेली को
भुला दिया है सबने..
चंदा मामा, नंदन, सुमन - सौरभ
चाचा - चौधरी और नागराज
बच्चों का दिल बहलाया मैंने
परियों की कहानी सुनायी
जंगल - बुक की दुनिया दिखाई मैंने
नवयुवायों के प्रेमसिक्त पुष्प को
अपने आलिंगन में छुपाया मैंने
सूखे पुष्पों को वर्षों पन्नों में
याद बना कर संजोया मैंने..
कभी कथा - उपन्यास बनकर
मुस्कान चेहरे पर खिलाया मैंने
इतिहास, भूगोल, चांद - तारे समझाया मैंने..
सिसकती स्त्री ने देह पर लगी धूल दिखाया
शब्दों से अपना ज़ख्म मुझे बतलाया
सुनकर मेरी तन्द्रा भंग हुई
सोती हुई से मैं जाग पड़ी
अरे..! ये क्या सपने में बात हुई!
किताब से मेरी मुलाकात हुई |
सत्य थी ये व्यथा कथा
हैरान होकर ढाढस बंधाया मैंने
मन ही मन कहा मैंने -
बेकार ही दुखी तुम होती हो
आज भी मेरे सिरहाने तुम सोती हो
रोज सुबह - शाम साथ मेरे रहती हो,
ज्ञान के अखंड - ज्योत तुम जलाती हो..
आओ, मिलकर किताबों को पुनर्जीवित करें
धूल लगी पन्नों को साफ़ करें
उन सुनहरे पलों, उन सौगातों का धन्यवाद करें |
(स्वरचित)
:तारा कुमारी
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बहुत सुन्दर सृजन। लिखती रहें ।
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
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